7/2/09

जीवन ऊर्जा

लेखक: शम्भु चौधरी


Shambhu Choudharyजीवन में हर इंसान अपने आपको किसी न किसी बंधनों/समस्याओं से जकड़ा हुआ पाता है, चाहे वह पारिवारिक, सामाजिक, शारीरिक, मानसिक या किसी प्रकार की हीनभावना से भले ही ग्रसित हो। इन सभी विषयों पर यहाँ हम विस्तार से बातें करेंगे।


मानसिक समस्या:
मानसिक समस्या को हम कई भागों में या कई रूप में बदल सकतें हैं इसे नया रूप भी दिया जा सकता है। यह स्वःचिन्तन से स्वतः ही परिवर्तनशील भी है और इसे नियत्रंण भी किया जा सकता है। जो पारिवारिक, सामाजिक, शारीरिक समस्यों से भी जकड़ा हो सकता है। बिना किसी कारण के मानसिक समस्या पैदा नहीं हो सकती।


हीन भावना:
जबकि हीनभावना एक रोग मात्र है, इसका इलाज किसी के बताये मार्ग से ही किया जा सकता है। इसे कोई व्यक्ति चाहकर भी स्वतः दूर नहीं कर सकता। यह एक प्राकर का मानसिक जाल है, जो मनुष्य को धीरे-धीरे अपने जाल में उलझाता चला जाता है और संबंधित व्यक्ति के जीवन में अंधेरा लाने का हर पल प्रयास करता रहता है। जिसका कोई विशेष कारण नहीं होता। स्त्रीयों के अन्दर अकसर कपड़े और गहने को लेकर या पति के कारोबार और बच्चों की पढ़ाई को लेकर देखी जा सकती है, जबकि पुरुषों के भीतर ये लक्षण रोगात्मक या वंशानुगत भी हो सकते हैं।
संभवतः आप भी इसमें किसी एक पक्ष में अपने आपको खड़े पायें, ऐसा भी हो सकता है कि आप खुद को दोनों ही पक्षों में पाते हों।


जीवन ऊर्जा का प्रथम अध्याय:
महाभारत के युद्ध के समय हमने अर्जुन-कृष्ण के संवाद को सुना होगा। आज के इस अध्याय को यहीं से शुरू करते हैं।

दृष्टेमं स्वजनं कृ्ष्ण युयुत्सुं स्मुपस्थितम्,
सीदन्ति मम ग्रात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायेते।।


कुरुक्षेत्र में जब अर्जुन अपनी मानसिक स्थति को कृष्ण के सामने बयान करता है तो उसके अन्दर कुछ इसी प्रकार के लक्षण देखे जा सकते हैं। "युद्ध में अपने ही प्रियजनों को देखकर मेरा मुख सुखा जा रहा है, मेरे अंग शिथिल हो रहें हैं, मैं अपने आपको खड़ा रखने में असमर्थ पा रहा हूँ।
उपरोक्त श्लोक में अर्जुन ने अपने भीतर उत्पन हो रहे वातावरण को निःशंकोच भाव से कृष्ण (अपने सारथी ) को कहते हुए, उनसे युद्ध न करने की अपनी मंशा को ज़ाहिर कर खुद को सामाजिक बंधन से मुक्त करने की प्रर्थना भी करतें है।
हम यहाँ इसी संवाद के लक्षणों पर गौर करगें, तो यह पातें हैं कि मानसिक समस्या के जो-जो लक्षण होने चाहिये वे सभी श्री अर्जुन में उस समय विद्यमान पायें गये, जबकि हीनभावना के लक्षण को यहाँ नहीं देखा जा सका।
"व्यक्तित्व विकास" की इस श्रृंखला को चालू करते समय मन में एक साथ कई भाव उत्पन होते गये, जिसे क्रमवार हम यहाँ सिलसिलेवार देने का प्रयास करूँगा। कृष्ण-अर्जुन संवाद के अन्दर हमने देखा कि जब अर्जुन मानसिक संतुलन को खोने लगता है तो उसका सारथी किस प्रकार उसे सबल देता है। यह संवाद खुद में एक व्यक्तित्व विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। किसी धर्मशास्त्र के व्याख्यान के रूप में इसे न लेकर हम यहाँ इसके उस हिस्से की ही चर्चा करेंगे जहाँ श्री अर्जुन अपने आपको कमजोर अनुभव करते हुए मन से उपरोक्त शब्दों का उच्चारण करतें है- "सीदन्ति मम ग्रात्राणि मुखं च परिशुष्यति" ये घटना हमारे आपके जीवन में भी आम देखी जा सकती है। भले ही इसका स्वरूप भिन्न-भिन्न हो सकता है। आप और हम सभी साधारण प्राणी मात्र हैं। हमारे जीवन में हर जगह महापुरुषों की उपस्थिति संभव नहीं हो सकती। यह कार्य खुद ही हमें करना होगा, जिसे हम इस "जीवन उर्जा" के स्त्रोत से पूरा करने का प्रयास करेंगे।
हमने देखा है कि कई बार परिवार में कोई घटना घटती है तो हम उस घटना की सूचना मात्र से ही रो पड़ते हैं या किसी खुशी के समाचार से मिठाईयाँ बाँटने लग जाते हैं। हम किसी भी झण या तो खुद को कमजोर अनुभव करने लगते हैं या दौड़ने लगते हैं। किसी इच्छा पूर्ति से जब हम परिवार में खुशियाँ बाँटते हैं तो आशानुकूल न होने पर गम में पूरे वातावरण को परिवर्तित कर देते हैं।
परन्तु श्री अर्जुन के समक्ष ऐसी कोई घटना अकस्मात नहीं घटती है, फिर भी श्री अर्जुन अपने आपको शिथिल क्यों समझने लगे थे। -क्रमशः

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