31/3/09

संस्कार


।। श्री नमस्कार महामंत्र ।।

णमो अरिहंताणं।
णमो सिद्धाणं।
णमो आयरियाणं।
णमो उवज्झायाणं।
णमो लोए सव्वसाहूणं।
श्री अरिहंत भगवान को नमस्कार हो।
श्री सिद्ध भगवान को नमस्कार हो।
श्री आचार्य महाराज को नमस्कार हो।
श्री उपाध्याय महाराज को नमस्कार हो।
लोक में सब साधुओं को नमस्कार हो।
जिन्होंने राग, द्वेषरूपी शत्रुओं को जीत लिया है, उन्हें अरिहंत कहते हैं। मोक्ष में विराजित सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं, साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका इन चारों तीर्थों के
धार्मिक नेता आचार्य होते हैं। स्वमत और परमत के जानकार, धर्मशास्त्र पढ़ाने वाले उपाध्यक्ष कहलाते हैं। आत्म कल्याण की साधना करने वाले साधु होते हैं।


प्रभु प्रार्थना

हे प्रभो आनन्द दाता,
ज्ञान हमको दीजिए।
शीघ्र सारे अवगुणों को,
दूर हमसे कीजिये।
लीजिये हमको शरण में,
हम सदाचारी बनें।
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीरव्रत धारी बनें।
प्रेम से हम गुरूजनों की,
नित्य ही सेवा करें।
सत्य बोलें झूठ त्यागें,
मेल आपस में सदा करें।
निन्दा किसी की हम किसी से,
भूल कर भी न करें।
धैर्य बुद्धि मन लगा कर,
प्रभु गुण गाया करें।


प्रभु प्रार्थना

हे प्रभु ऐसा मन कर दो
मुदित रहे प्रत्येक दशा में, तोष सुधारस पावें।
जग भोगों की चकाचैंध में, भूल भटक नहिं जावें।
राग द्वेष ईर्ष्या मद ममता, सपनेहिं इन्हें न ध्यावें।
करे निरंतर ध्यान आपका, प्रेम से गुण गान गावें।
अणु अणु और परमाणु में, देखें रूप तुम्हारा।
सर्व समर्पण होय आपमे, रहे न अंश हमारा।
उत्पीड़क न बने किसी को, हो विनम्र मृदुभाषी।
सेवा धर्म परायण होवे, तज कर आश पिशाची।
बना है यह तन भव तरनेको, डूबत है मझधारा।
कीजे कृपा सफल हो जीवन, दे दो जरा सहारा।
हे प्रभु ऐसा मन कर दो.....


महामंत्र महिमा

ऐसो पंच नमुक्कारो
सव्वपावप्पणासणों।
मंगलाणं च सव्वेसिं
पढ़मं हवई मंगलं।।
यह पांच पदों में नमस्कार,
सब पापों का नाश करने वाला है,
संसार के सब मंगलों में यह
पहला श्रेष्ठ मंगल है।


मंगलभावना

शिवमस्तु सर्वजगतः
परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः।
दोषा प्रयान्तु नाशं,
सर्वत्र सुखी भवतु लोका।।
सकल विश्व का जय मंगल हो,
ऐसी भावना बनी रहे।
अमित परहित करने को मन,
सदैव तत्पर बना रहे।।
सब जीवों के दोष दूर हो
पवित्र कामना उर उल्लसे।
सुख शान्ति सब जीवों को हो,
प्रसन्नता जनमन विलसे
नाथ निरंजन भवभय भजन
तीन भुवन के हे स्वामी।
वीतराग सुखसागर है,
भगवान महावीर गुणधामी।।


लघुकथा: बांझ

रमा देवी ने अपनी बहू सुनैना पर बरसते हुए कहा ‘तूने मेरे बेटे की जिंदगी खराब कर दी कलंकनी’ शादी को सात साल बीत गए लेकिन अब तक मुझे कोई पोता नहीं दे सकी। पता नहीं किस अशुभ घड़ी में पैदा हुई थी। जा निकल इस घर से। ऐसी बांझ औरत की हमें जरूरत नहीं। मैं अपने इकलौते बेटे रविनेश का ब्याह कहीं और कर दूंगी।
सुनैना की सास ने धक्के व गंदी गालियां देकर उसे घर से बाहर निकाल दिया। उसका पति भी अपनी मां का कहा मान अपनी पत्नी को मारता पीटता था।
अपने पति व सास की यातना-प्रताड़ना से दुःखी हो सुनैना अपने गरीब पिता रामदयाल के घर आ गयी। तथा कभी भी ससुराल में लौटकर न जाने की कसम खा ली। सुनैना बड़ी भोली-भाली, सुशील एवं सुसंस्कृत लड़की थी। उसके अभिभावकांे ने उसे अच्छे संस्कार दिए थे। उसने सास व पति के दुःखों से पीड़ित होकर कभी उनका विरोध नहीं किया, चुपचाप अपमान एवं मार सहती रही।
सुनैना का पति रविनेश जो पढ़ा लिखा था अपनी मां के बहकावे में आकर दूसरी शादी के लिए राजी हुआ।
सुनैना के पिता ने भी सुनैना को मनाकर दूसरी शादी के लिए राजी कर लिया। करीबन दो वर्ष के बाद एक शादी के समारोह में सुनैना की पूर्व सास रमादेवी और पूर्व पति रविनेश की सुनैना से अचानक भेंट हो गयी। सुनैना की गोद में एक नन्हा-मुन्ना प्यारा सा बच्चा देख दोनों हैरान रह गए। नजरें मिलीं तो सुनैना ने उस पर कटाक्ष कसते हुए मुस्कुराकर कहा, ‘‘मेरा अपना बच्चा है। बड़ा प्यारा है न।’’
अरे हां, सुना था आपने अपने इकलौते लाडले का ब्याह दूसरी जगह करवा दिया था। अब तो आपको लल्ला मिल गया होगा? वे दोनों सुनैना के सवाल का जवाब दिए बिना ही आत्मग्लानि के साथ गर्दन झुकाकर आगे बढ़ गए क्योंकि दूसरी शादी के बाद भी रमा देवी पोते का मुंह देखने को तरस गयी थी।


- डॉ. पी. आर. बासुदेवन ‘शेष’


लघुकथा: पाने के पहले कुछ देना सीखो

एक सुविख्यात संत थे। उनके विषय में प्रसिद्ध था कि उनके पास जाकर आशीर्वाद लेने से मनोकामना पूरी हो जाती है। एक स्त्री संतान प्राप्ति की इच्छा से संत के पास आई और बोली-‘‘सब कुछ है मेरे पास, केवल पुत्र ही नहीं है। मुझे आशीर्वाद दीजिए ताकि मेरा आंगन भी हरा-भरा हो।’’
संत ने उसे दो मुट्ठी भुने हुए चने दिए और कहा-‘‘बाहर बैठकर ये चने खा, जब बुलाऊँ तब आना।’’
स्त्री आंगन में बैठकर चने खाने लगी। वहाँ कई बच्चे खेल रहे थे। स्त्री को खाता हुआ देखकर ललचायी आंखों से उसकी ओर देखने लगे। स्त्री को यह अच्छा नहीं लगा। उसने एक बच्चे को डांटते हुए कहा-‘‘क्या है रे?’’ ‘‘हमें भी चने दो’’ एक बालक बोल पड़ा। ‘‘भाग यहां से’’ स्त्री ने दुत्कार कर कहा। मगर बालक खड़े रहे। स्त्री ने एक बालक का हाथ पकड़कर मरोड़ दिया तो बालक चीख उठा। चीख सुनकर संत बाहर आए। उन्होंने स्त्री से पूछा-‘‘क्या हुआ?’’ स्त्री चिढ़कर बोली-‘‘होता क्या? चने मांग रहे हैं और तंग कर रहे हैं।’’
संत स्थिति समझ गए और बोले-‘‘माँ, जब तुम मुफ्त के चनों में से चार दाने इन अनाथ बालकों को नहीं दे सकीं तो भगवान तुम्हें हाड़-मांस का बच्चा कैसे देगा? पाने से पहले देना सीखो। जाओ, पहले देने की भावना मन में पैदा करो, फिर कुछ पाने की लालसा करना।’’


सबसे बड़ा आश्चर्य

वनमें धर्मराज युधिष्ठिर के चारों भाई सरोवर के सामने मृतक के समान पड़े थे, प्यास तथा भ्रातृशोक से व्याकुल युधिष्ठिर के सम्मुख एक यक्ष खड़ा था। यक्ष के प्रश्नों का उत्तर दिये बिना जल पीने के प्रयत्न में ही भीम, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव की यह दशा हुई थी। युधिष्ठिर ने यक्ष को उसके प्रश्नों का उत्तर देना स्वीकार कर लिया था। यक्ष प्रश्न करता जा रहा था, युधिष्ठिरजी उसे धैर्यपूर्वक उत्तर दे रहे थे, यक्ष के अन्तिम प्रश्नों में से एक प्रश्न था-संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?


अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।
शेषाः स्थिरत्वमिच्छीन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।।

सत्य-प्रतिदिन प्राणी यमलोक जा रहे हैं। (सब देख रहे हैं कि प्रतिदिन उनके आसपास लोग जा रहे हैं) परन्तु दर्शक बने हुए लोग स्थिर बने रहना चाहते हैं, इससे बड़ा आश्चर्य संसार में और क्या होगा। यह उत्तर था धर्मराज युधिष्ठिर का।


स्वाभिमान व अहं भाव

प्रत्येक व्यक्ति को स्वाभिमान प्रिय है, वह चाहता है कि उसके आत्मसम्मान को ठेस नहीं पहुँचे, ऐसा तभी संभव है जबकि दूसरों के आत्मसम्मान का भी ध्यान रखा जाये। आत्मसम्मान अहं भाव से सर्वथा भिन्न है आत्मसम्मान को ठेस तब पहुँचती है जब कोई अपनी इज्जत से खिलवाड़ करता है, यानि न कहने जैसा आवेश में कह देता है अथवा न करने जैसी कोई बात हो जाती है, तब टकराव की नौबत आ जाती है व एक दूसरे पर हावी होने का प्रयास किया जाता है अथवा एक दूसरे को नीचा दिखाने का, जिसे कहा जाता है आत्मसम्मान की लड़ाई, जो वस्तु स्थिति का सही जायजा लेने पर अथवा भूल का अहसास होने पर पश्चाताप के साथ समाप्त की जा सकती है, परन्तु अहं भाव से व्यक्तिगत स्वार्थ अथवा ईर्ष्या द्वेष की उत्पत्ति होती है जो लम्बे समय तक एक दूसरे के लिये ईर्ष्यावश नुकसान की कामना करते हैं जिसमें अपनी ही आत्मा का अहित है न कि सामने वाले का। अहं भाव अहंकार को जन्म देता है जो विवेक पर पर्दा डालने का काम करता है जिससे कई बार सही निर्णय कर पाना कठिन हो जाता है अतः अहं भाव अथवा अहंकार सर्वथा हानिकारक है जो आत्म उत्थान व व्यवहारिक अभ्युदय में भी बाधक है जहां आत्म सम्मान का सवाल पैदा होता है वहां भी अधिक उलझने के बजाय समस्या को सरलता से समझने का प्रयास कर विवाद को समाप्त कर देना ही उपयुक्त है।


ईर्ष्या व द्वेष की ज्वाला हानिकारक

वैसे सभी जीव किसी न किसी रूप में ईर्ष्या व द्वेष के दूषण से ग्रसित हैं, कहीं कम व कहीं अधिक। बड़ी मछली छोटी मछली को अक्सर खा जाती है, परन्तु यह प्रक्रिया ईर्ष्या द्वेष का परिणाम नहीं है, क्योंकि बड़ी मछली के सामने कौन सी छोटी मछली है इस से दोनों अनभिज्ञ है। कुत्तों की जाति में ईर्ष्या-द्वेष की मात्रा अधिक होती है, ज्योंही एक कुत्ता किसी अपरिचित अथवा बाहर से आये कुत्ते को देखेगा तो भौंकने लग जायेगा व शत्रुतापूर्ण व्यवहार करेगा परन्तु उसमें भी यह गुण है कि अपने आस पास रहने वाले व परिचित कुत्तों के साथ बैर अथवा द्वेष नहीं रखेगा। जबकि यह अजीब सा लगता है कि जब मानव जाति में इन्सान प्रायः ईर्ष्या-द्वेष अपने वालों से अथवा परिचितों से ही अधिक करता है। यदि कोई अपने से आगे बढ़ जाता है अथवा किसी की प्रगति निरन्तर हो जाती है तब लगता है कि ऐसा क्यों हो रहा है। यह सोच कर एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या-द्वेष की भावना पनपने लगती है जो नहीं होनी चाहिये, यदि ऊपर वाली लाईन बड़ी है तो छोटी लाईन को बड़ा करने का प्रयास करना चाहिये न कि बड़ी को काट कर छोटी के बराबर लाने की भावना रखना। मेंढक जाति में प्रायः एक दूसरे की टांग खींचने का प्रवृत्ति अधिक होती है जिसका मानव जाति को अनुकरण नहीं करना चाहिये। आज किसी दूसरे की उन्नति व प्रगति हो रही है, कल अपनी भी हो सकती है, अतः जैसा आपका सोचना अथवा व्यवहार होगा उसी की पुनरावृत्ति सामने वालों में आपके प्रति होगी, अर्थात् हर क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्य होती है अतः ईर्ष्या-द्वेष के धुएं को पनपने के पूर्व ही शान्त कर देना चाहिये। ईर्ष्या-द्वेष से स्वयं का ही अहित है, किसी दूसरे का कुछ बिगड़ने वाला नहीं।


संस्कार क्या है?

संस्कार का अर्थ है मनुष्य के अन्दर छुपी एवं दबी पड़ी प्राचीन संस्कृति को उभार कर सामाजिक जीवन के अनुसार ढालने की एक अनवरत प्रक्रिया। एक दिन में खराब हो जाने वाले दूध को दही बनाकर, घी में परिवर्तित करना, दूध का संस्कार कर उसे पौष्टिक बनाना एवं वर्षों खराब न होने वाला घी बनाना ही संस्कारिता है। भारतीय जीवन पद्वति में संस्कार प्रदान करने की सुन्दर व्यवस्था है। यह प्रक्रिया प्रारम्भ में घर, फिर विद्यालय, मैदान एवं फिर संस्था आदि से अनवरत चलती रहती है।

14/2/09

कैसे और कहाँ से यह ऊर्जा पैदा होती है?

लेखक: शम्भु चौधरी

"जीवन ऊर्जा" के पिछले भाग में हम इस बात पर चर्चा कर रहे थे कि कैसे और कहाँ से यह ऊर्जा पैदा होती है? इसी बीच मैंने किसान के आत्महत्या की बात जोड़ दी। आप भी सोच में पड़ गये होंगे कि "जीवन ऊर्जा" के इस विषय से किसान की बात का क्या लेना-देना। बीच-बीच में कहीं हम अपने मूल विषय से भटक तो नहीं जाते?
हाँ ! हम अपने मूल विषय से भटक गये थे। इसी प्रकार हम जब किसी कार्य को करते हैं तो हमारे अन्दर एक साथ कई ग्रंथियाँ कार्य करने लगती है जो हमें अपने कार्य को पूरा करने नहीं देती। कई बार कार्य करने की क्षमता समाप्त होने लगती है। शरीर थोड़ा विश्राम खोजने लगता है। ठीक इसी प्रकार मस्तिष्क भी कार्य करते-करते कुछ विराम चाहता है। पुनः विश्राम के पश्चात हम नई ऊर्जा के साथ कार्य करने लगते हैं। इस प्रक्रिया में जो ऊर्जा प्राप्त होती है हम इसे भी ऊर्जा की श्रेणी में रख सकते हैं। परन्तु हम यहाँ जिस ऊर्जा की बात कर रहे हैं उससे शरीर की थकावट का कोई लेना-देना नहीं होता।
आप किसी खेल के मैदान में एक साथ हजारों लोगों को देखते होगें। दो टीम खेल रही होती है। देखने वाले भी दो भागों में बँटे हुए होते हैं। खेल एक ही है। एक टीम द्वारा गोल करते ही, समर्थकों में अचानक से एक साथ ऊर्जा का संचार देखा जा सकता है, जबकि ठीक इसके विपरीत दूसरे समूह के समर्थकों में निराशा झलती है। यह हमारे-आपके जीवन का अंग सा बन गया है। इसे किसी मनोचिकित्सक या वैज्ञानिकों की नजरों से नहीं देखा जा सकता। बस यही मार्ग है कि हम किस बात को किस रूप में अपनाते हैं। जो बातें हमें अच्छी लगती है तो हममें ऊर्जा का संचार होने लगता है और जो हमें नहीं अच्छी लगती, हमारी ऊर्जा सुस्त हो जाती है या विपरीत दिशा में कार्य करने लगती है।
ठीक इसी प्रकार हमारे शरीर के अन्दर दो ग्रंथियाँ कार्य करती है। एक जो हमें ऊर्जा प्रदान करती है दूसरी हममें उत्पन्न होनी वाली ऊर्जा को नष्ट करने का कार्य करती है। हमें यह देखना होगा कि कौन सी ग्रंथि हमारे जीवन में ज्यादा प्रभावी हो रखी है। जिस व्यक्ति के जीवन में कार्य करने का उत्साह बना रहता है उसके व्यक्तित्व/चेहरा हमेशा तेज से चमकता मिलेगा। वहीं सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले कर्मचारियों के चेहरे हमेशा सुस्त और मुरझाये हुए मिलेगें। जबकि उनको किसी बात की चिन्ता नहीं रहती कि माह के अन्त में घर का खर्च कहाँ से लायेंगे। क्रमश:

12/2/09

किसान क्यों आत्महत्या करता है?

लेखक: शम्भु चौधरी

प्रायः हम देखतें हैं कि अक्सरां ही आदमी बात-वे-बात मस्तिष्क में तनाव को पाले रखतें हैं। जो किसी न किसी प्रकार से मानसिक दबाव का कारण बना रहता है। एक बार मेरे एक मित्र ने अपने कर्मचारी को चाय लाने को कहा। जब वह चाय लेकर आया तो उसे थोड़ी देरी हो गई। चाय भी ठंडी थी, बस क्या था उनके चेहरे पर तनाव ने अपनी जगह बना ली। साधरणतः इसका मूल कारण यह है कि हमारी ऊर्जा जब अधिक हो जाती है तो उसे निकलने का कोई माध्यम चाहिये जैसे आपने देखा होगा कि जब कोई व्यक्ति, किसी व्यक्ति की बात को अनसुनी कर दे तो, वह व्यक्ति चिल्लाने या जोर-जोर से बोलने लगता है। अर्थात उसके अन्दर बोलने की ऊर्जा उत्पन्न हो रही है परन्तु कोई सुनना नहीं चाहता। बस वह व्यक्ति चिल्लाने लगता है। कई बार हम अपने घरों में अपने बच्चों से या परिवार के अन्य बड़े सदस्यों से हम बात नहीं करते तो उनकी यह ऊर्जा या तो नष्ट होने लगती है या फिर उसे मानसिक रोगी बना देती है।
"जीवन ऊर्जा" के महत्व को तब तक हम नहीं समझ पायेंगे जब तक इसके मुख्य लक्षण को हम पहचानने का प्रयास नहीं करेंगे। भले ही हम कितने ही मनोचिकित्सक या वैज्ञानिक प्रयोग इस पर कर लें हम कभी भी सफल नहीं हो सकते। इसके लिये आज हम कुछ विषय से ह्टकर बातें करते हैं।


कई बार मैं सोचता हूँ कि-
"भारत के अर्थशास्त्री जब तक वातानुकूलित चेम्बर में बन्द होकर विदेशी ज्ञान के बल पर भारत के भाग्य का फैसला करते रहेंगे तब तलक भारत के किसानों का कभी भला नहीं हो सकता। भारत में जो किसान सोना पैदा कर रहे हैं वे तो भूखों मर रहें हैं और जो लोग इसका व्यापार कर रहें हैं वे देश के सबसे बड़े धनवान होते जा रहें हैं। इसकी मूल समस्या है हमारे अन्दर का ज्ञान जो गलत दिशा से अर्जित की हुई है। एक मजदूर जब काम करता है तो उसके पास सिर्फ इतना ही ज्ञान होता है कि उसे जो बताया जाय वह कार्य कर दे। ये सभी अर्थशास्त्री मात्र मजदूरी कर रहें है। इस देश के अर्थशास्त्री के दिमाग में पता नहीं किस खेत का भूसा भरा हुआ है कि वे इतनी छोटी सी बात को भी नहीं समझ पा रहे कि देश में सिर्फ किसान ही आत्महत्या क्यों करता है? एक उद्योगपति क्यों नहीं आत्महत्या करता? अभी हाल ही में सत्यम के मालिक ने करोड़ों रुपये की हेराफेरी कर दी। सरकार उसे बचाने में जुट गई। दुनिया में कई बड़ी-बड़ी कम्पनियां दिवालिया घोषित होती जा रही है, क्रम अभी भी रुका नहीं है। इनमें से हम किसी को भी आत्महत्या करते नहीं देखे, न ही किसी ने सुना ही है। परन्तु जब किसी किसान की फसल नष्ट होती है तो वह क्यों आत्महत्या कर लेता है?"
-क्रमश:

11/2/09

चित्त को शांत करें।

लेखक: शम्भु चौधरी


"जीवन ऊर्जा" के स्त्रोत का पता लगाने के लिये हमलोग श्री अर्जुन और श्री कृष्ण के उस संवाद पर चर्चा कर रहे थे, जहाँ श्री अर्जुन के भ्रम, स्नेह, अपनत्व ने अपनी शक्ति को कमजोर कर उसे निराशाजनक-कमजोर करने का प्रयत्न कर दिया, ऐसे समय में श्री कृष्ण के संदेश ने उनके इस भ्रम, स्नेह और अपनत्व को समाप्त कर यह बताया कि "तुम जो देख रहे हो वो और जो सोच रहे वह सिर्फ एक माया है" और श्री अर्जुन के अन्दर नई ऊर्जा का संचार किया। ये ऊर्जा अचानक से कहाँ से पैदा हुई इसी बात का अध्ययन हमें यहाँ करना है। ऊर्जा कैसे पैदा होती है।

  • 1.प्रशंसा करने से
  • 2.मान देने से
  • 3.स्वचिंतन से
  • 4.चिंता न करने एवं
  • 5.चित्त को शांत रखने से


  • 1. प्रशंसा करना:

    हम यह बात जानते हैं कि यदि कोई व्यक्ति हमारी प्रशंसा करता हो तो हमें न सिर्फ सुनने में ही अच्छा लगता है, वरन वह व्यक्ति भी हमेशा याद रहता है और जिस कार्य को करने पर उस व्यक्ति ने प्रशंसा की वैसे या अन्य कार्य को करने की मन में और भी तमन्ना बनी रहती है। अर्थात ऊर्जा का संचार बना रहता है। यही कार्य जब हम किसी बच्चे के द्वारा बनाये कला-कृति को पुरस्कृत करते हैं तो उस बच्चे में जो ऊर्जा का संचार होता है वह उसे चित्रकार, कवि, लेखक, साहित्यकार, डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक आदि बना देता है। किसी समय दिया हुआ एक छोटा से स्नेह, प्यार या प्रशंसा के दो शब्द उसके जीवन को बदल सकता है। ऊपर जायें


  • 2. मान देना:

    किसी को मान देना भी संबंधित व्यक्ति के जीवन में ऊर्जा का संचार करना ही है। हम और आप दैनिक जीवन में जब कोई कार्य करते हैं तो कई बार ऐसा भी होता है कि किसी बच्चे या अपने से बड़े के कार्य में हो रही गलती के लिये उसे या तो टोकते ही नहीं या फिर टोकते हैं तो इतना टोकने लगते हैं कि उसके अन्दर कार्य करने की क्षमता धीरे-धीरे समाप्त होने लगती है। यही कार्य बच्चों को समझा कर या बड़े को मान देते हुए भी उन्हें बता सकते हैं। इससे उसमें न सिर्फ अपनी गलती को समझने की क्षमता का विकास होगा। नये कार्य करने की क्षमता भी विकसित होती है। अर्थात अपनी बोलने की कला से ही हम नई ऊर्जा को उत्पन्न कर सकतें हैं। ऊपर जायें


  • 3. स्वचिंतन से:

    स्वचिंतन की कला एक साधारण कला है इसे हर कोई अपना सकता है। हम प्रायः/अकसर यह कहते पाये जाते हैं कि "टाइम(समय) नहीं है- कल बात करना या कल आना" कोई कुछ माँगने आ गया तो उसे एक-दो बार बिना लौटाये तो उसका जबाब ही नहीं देना। ऐसा घटना हम सबके जीवन में आम बात है। इसे ऐसे भी कहा जा सकता कि हममें आदत सी हो गई है कि किसी काम को कल पर टाल देना। इसी कार्य को हम यदि समय को नियमित कर लें किसी भी व्यक्ति के कार्य को टालने की वजह उसका कार्य कर दें या समय निश्चित कर उस कार्य को पूरा कर लें तो न सिर्फ दोनों व्यक्ति का काम बन जायेगा, समय भी दोनों का अन्य कार्य करने के लिये बचा रह जायेगा, जिसे अन्य किसी जरूरी कार्य में उपयोग कर सकगें। इस तरह के स्वचिंतन से जो ऊर्जा अत्पन्न होती है वह स्थाई होती है और इससे खुद को काफी संतोष भी मिलता है। ऊपर जायें


  • 4. चिंता करना:

    प्रायः हम उस बात की चिंता करने लगते हैं जो गुजर चुका है या अभी आया ही नही। अर्थात वर्तमान को कल की बात के लिये या भविष्य में होने वाले घटनाक्रम के लिये अभी से चिंतित होकर अपने वर्तमान को नष्ट कर देते हैं। कुछ लोग चिंता में समय गुजार देते हैं कुछ लोग चिंतित होकर उस अंधेर गुफा में खो जाते हैं। यह क्रिया हमारे जीवन की ऊर्जा को नष्ट करने का कार्य करती है। ऊपर जायें


  • 5.चित्त को शांत रखना:

    कई बार हम बेवजह ही परेशान होते रहतें है, इस बेवजह परेशानी का कोई कारण नहीं होता, यदि होता भी है तो हम उसे तत्काल समाप्त नहीं कर सकते। जैसे रात को सोते वक्त यदि इस परेशानी को चाहकर भी दूर नहीं किया जा सकता, फिर भी हम रात को करवटें बदलतें रहतें हैं। इस करवट के बदलने से रात को निद्रा भी नहीं आती और मस्तिष्क में तनाव बना रहता है। यह क्रम कभी किसी बात को लेकर या कभी किसी बात को लेकर क्रमशः ही चलता रहता है नतीजतन नींद की गोली लेनी पड़ जाती है, तनाव कभी कम तो कभी अधिक होता रहता है। इस तनाव को हम अपने चित्त को शांत कर, कर सकतें हैं और इसमें जो ऊर्जा की बचत होगी उसे हम किसी अन्य कार्य में उपयोग कर सकतें है। जब आप सोने जायें तो दिमाग को अपने विस्तर के नीचे रखकर सो जाईये यह बात मैं अकसर अपने मित्रों को भी कहता हूँ, एक बार मेरी पत्नी को भी यही बात कही तो बोलने लगी बस आपको क्या? सुबह मुझे ही तो जल्दी उठना पड़ता है, बच्चे की स्कूल 7.00 बजे से होती है, आप तो 7 बजे उठते ही हो।
    मैंने पुछा- "इससे उठने का क्या संबंध" मैं तो सिर्फ सोने को कह रहा हूँ, अभी मस्तिष्क को, चित्त को,शांत कर के सो जाओगी तो सुबह तुम ही अपने आपको फ्रेश महसूस करोगी। एकबार कर के तो देखो।
    उसने पुछा- "कि ये दिमाग को तकिये के नीचे कैसे रखा जायेगा।"
    मैंने उसे समझाया - "बस बिलकुल साधारण सी बात है। बिस्तर पर जब सोने जाओ तो सारी दुनियादारी की बात को भूल जाओ और ईश्वर से प्रार्थना करो कि आज जो गुजर चुका है, उसमें कहीं भूल हुई हो तो क्षमा करना और कल जो आने वाला है सबके लिये अच्छा हो।" बस इतनी बात याद करनी है और सो जाना है। क्रमशः


    ऊपर जायें

  • 8/2/09

    जीवन गतिशील है

    लेखक: शम्भु चौधरी


    LIfe of Power

    जीवन गतिशील है। हम और आप हमेशा इस बात को लेकर चिंतित तो रहते हैं कि कल क्या होगा। पर कल के ऊपर निर्भर नहीं रहना चाहते, हमेशा भविष्य को सुरक्षित किये जाने का प्रयत्न आज ही करते हैं। जिसने आज को सुरक्षित बना लिया उसका कल स्वतः ही सुरक्षित हो जायेगा और जो खुद को सुरक्षित महसूस करने लगेगा उसे कल की चिंता भी नहीं रहती कि कल कैसा होगा।
    वहीं कुछ स्वतंत्र प्रकृति के लोग भी होते हैं जिसे न तो आज की चिंता रहती न ही कल की चिंता करते हैं जो मिला खा लिया नहीं मिला तो कोई बात नहीं। सर्वप्रथम हमें यह तय करना होगा कि हमें कैसे जीना है?

    जब हम किसी उत्सव की तैयारी करते हैं या घर में कोई बच्चा जन्म लेता है तो इस अवसर पर एक नई शक्ति का संचार हमें हमारे अन्दर देखने को मिलता है। वहीं जब घर में किसी की मृत्यु हो जाती है या किसी ऐसे समारोह में जहाँ आपको मान नहीं मिलता तो आपके अन्दर की ऊर्जा विपरीत कार्य करने लगती है जो आपको कमजोर कर शिथिल बना देती है। जबकि श्री अर्जुन के साथ इनमें से कोई भी बात लागू नहीं होती। वे जो बात कर रहे थे न तो उसे कायरता की श्रेणी में रखी जा सकती है और ना ही उसे हीनभावना की श्रेणी में ही। न ही उसे हम किसी भविष्य की चिंता कह सकते हैं ना ही उसे किसी उत्सव या शोक का माहौल कह सकतें है। युद्धक्षेत्र में एक योद्धा के इस व्यवहार को ऊर्जा से परिपूर्ण रहते हुए भी जब किसी ऐसे वातावरण का सामना करना पड़े तो इसे राजनीति भी नहीं कह सकते। तो क्या हम यह मान लें कि इस समय ऊर्जा ने सही कार्य करना बन्दकर श्री अर्जुन को भ्रमित करने का कार्य प्रारंभ कर दिया था। यदि इसे ही सही मान लें तो पुनः श्री कृष्ण ने ऐसा क्या कह दिया कि श्री अर्जुन की ऊर्जा पुनः सही दिशा में कार्य करने लगी जो कुछ पल पुर्व नहीं कार्य कर रही थी। हम "जीवन उर्जा" के इस भाग में इसी रहस्य को जानने का यहाँ प्रयत्न करेंगे। क्रमशः -शम्भु चौधरी

    7/2/09

    जीवन ऊर्जा

    लेखक: शम्भु चौधरी


    Shambhu Choudharyजीवन में हर इंसान अपने आपको किसी न किसी बंधनों/समस्याओं से जकड़ा हुआ पाता है, चाहे वह पारिवारिक, सामाजिक, शारीरिक, मानसिक या किसी प्रकार की हीनभावना से भले ही ग्रसित हो। इन सभी विषयों पर यहाँ हम विस्तार से बातें करेंगे।


    मानसिक समस्या:
    मानसिक समस्या को हम कई भागों में या कई रूप में बदल सकतें हैं इसे नया रूप भी दिया जा सकता है। यह स्वःचिन्तन से स्वतः ही परिवर्तनशील भी है और इसे नियत्रंण भी किया जा सकता है। जो पारिवारिक, सामाजिक, शारीरिक समस्यों से भी जकड़ा हो सकता है। बिना किसी कारण के मानसिक समस्या पैदा नहीं हो सकती।


    हीन भावना:
    जबकि हीनभावना एक रोग मात्र है, इसका इलाज किसी के बताये मार्ग से ही किया जा सकता है। इसे कोई व्यक्ति चाहकर भी स्वतः दूर नहीं कर सकता। यह एक प्राकर का मानसिक जाल है, जो मनुष्य को धीरे-धीरे अपने जाल में उलझाता चला जाता है और संबंधित व्यक्ति के जीवन में अंधेरा लाने का हर पल प्रयास करता रहता है। जिसका कोई विशेष कारण नहीं होता। स्त्रीयों के अन्दर अकसर कपड़े और गहने को लेकर या पति के कारोबार और बच्चों की पढ़ाई को लेकर देखी जा सकती है, जबकि पुरुषों के भीतर ये लक्षण रोगात्मक या वंशानुगत भी हो सकते हैं।
    संभवतः आप भी इसमें किसी एक पक्ष में अपने आपको खड़े पायें, ऐसा भी हो सकता है कि आप खुद को दोनों ही पक्षों में पाते हों।


    जीवन ऊर्जा का प्रथम अध्याय:
    महाभारत के युद्ध के समय हमने अर्जुन-कृष्ण के संवाद को सुना होगा। आज के इस अध्याय को यहीं से शुरू करते हैं।

    दृष्टेमं स्वजनं कृ्ष्ण युयुत्सुं स्मुपस्थितम्,
    सीदन्ति मम ग्रात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
    वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायेते।।


    कुरुक्षेत्र में जब अर्जुन अपनी मानसिक स्थति को कृष्ण के सामने बयान करता है तो उसके अन्दर कुछ इसी प्रकार के लक्षण देखे जा सकते हैं। "युद्ध में अपने ही प्रियजनों को देखकर मेरा मुख सुखा जा रहा है, मेरे अंग शिथिल हो रहें हैं, मैं अपने आपको खड़ा रखने में असमर्थ पा रहा हूँ।
    उपरोक्त श्लोक में अर्जुन ने अपने भीतर उत्पन हो रहे वातावरण को निःशंकोच भाव से कृष्ण (अपने सारथी ) को कहते हुए, उनसे युद्ध न करने की अपनी मंशा को ज़ाहिर कर खुद को सामाजिक बंधन से मुक्त करने की प्रर्थना भी करतें है।
    हम यहाँ इसी संवाद के लक्षणों पर गौर करगें, तो यह पातें हैं कि मानसिक समस्या के जो-जो लक्षण होने चाहिये वे सभी श्री अर्जुन में उस समय विद्यमान पायें गये, जबकि हीनभावना के लक्षण को यहाँ नहीं देखा जा सका।
    "व्यक्तित्व विकास" की इस श्रृंखला को चालू करते समय मन में एक साथ कई भाव उत्पन होते गये, जिसे क्रमवार हम यहाँ सिलसिलेवार देने का प्रयास करूँगा। कृष्ण-अर्जुन संवाद के अन्दर हमने देखा कि जब अर्जुन मानसिक संतुलन को खोने लगता है तो उसका सारथी किस प्रकार उसे सबल देता है। यह संवाद खुद में एक व्यक्तित्व विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। किसी धर्मशास्त्र के व्याख्यान के रूप में इसे न लेकर हम यहाँ इसके उस हिस्से की ही चर्चा करेंगे जहाँ श्री अर्जुन अपने आपको कमजोर अनुभव करते हुए मन से उपरोक्त शब्दों का उच्चारण करतें है- "सीदन्ति मम ग्रात्राणि मुखं च परिशुष्यति" ये घटना हमारे आपके जीवन में भी आम देखी जा सकती है। भले ही इसका स्वरूप भिन्न-भिन्न हो सकता है। आप और हम सभी साधारण प्राणी मात्र हैं। हमारे जीवन में हर जगह महापुरुषों की उपस्थिति संभव नहीं हो सकती। यह कार्य खुद ही हमें करना होगा, जिसे हम इस "जीवन उर्जा" के स्त्रोत से पूरा करने का प्रयास करेंगे।
    हमने देखा है कि कई बार परिवार में कोई घटना घटती है तो हम उस घटना की सूचना मात्र से ही रो पड़ते हैं या किसी खुशी के समाचार से मिठाईयाँ बाँटने लग जाते हैं। हम किसी भी झण या तो खुद को कमजोर अनुभव करने लगते हैं या दौड़ने लगते हैं। किसी इच्छा पूर्ति से जब हम परिवार में खुशियाँ बाँटते हैं तो आशानुकूल न होने पर गम में पूरे वातावरण को परिवर्तित कर देते हैं।
    परन्तु श्री अर्जुन के समक्ष ऐसी कोई घटना अकस्मात नहीं घटती है, फिर भी श्री अर्जुन अपने आपको शिथिल क्यों समझने लगे थे। -क्रमशः