31/3/09

संस्कार


।। श्री नमस्कार महामंत्र ।।

णमो अरिहंताणं।
णमो सिद्धाणं।
णमो आयरियाणं।
णमो उवज्झायाणं।
णमो लोए सव्वसाहूणं।
श्री अरिहंत भगवान को नमस्कार हो।
श्री सिद्ध भगवान को नमस्कार हो।
श्री आचार्य महाराज को नमस्कार हो।
श्री उपाध्याय महाराज को नमस्कार हो।
लोक में सब साधुओं को नमस्कार हो।
जिन्होंने राग, द्वेषरूपी शत्रुओं को जीत लिया है, उन्हें अरिहंत कहते हैं। मोक्ष में विराजित सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं, साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका इन चारों तीर्थों के
धार्मिक नेता आचार्य होते हैं। स्वमत और परमत के जानकार, धर्मशास्त्र पढ़ाने वाले उपाध्यक्ष कहलाते हैं। आत्म कल्याण की साधना करने वाले साधु होते हैं।


प्रभु प्रार्थना

हे प्रभो आनन्द दाता,
ज्ञान हमको दीजिए।
शीघ्र सारे अवगुणों को,
दूर हमसे कीजिये।
लीजिये हमको शरण में,
हम सदाचारी बनें।
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीरव्रत धारी बनें।
प्रेम से हम गुरूजनों की,
नित्य ही सेवा करें।
सत्य बोलें झूठ त्यागें,
मेल आपस में सदा करें।
निन्दा किसी की हम किसी से,
भूल कर भी न करें।
धैर्य बुद्धि मन लगा कर,
प्रभु गुण गाया करें।


प्रभु प्रार्थना

हे प्रभु ऐसा मन कर दो
मुदित रहे प्रत्येक दशा में, तोष सुधारस पावें।
जग भोगों की चकाचैंध में, भूल भटक नहिं जावें।
राग द्वेष ईर्ष्या मद ममता, सपनेहिं इन्हें न ध्यावें।
करे निरंतर ध्यान आपका, प्रेम से गुण गान गावें।
अणु अणु और परमाणु में, देखें रूप तुम्हारा।
सर्व समर्पण होय आपमे, रहे न अंश हमारा।
उत्पीड़क न बने किसी को, हो विनम्र मृदुभाषी।
सेवा धर्म परायण होवे, तज कर आश पिशाची।
बना है यह तन भव तरनेको, डूबत है मझधारा।
कीजे कृपा सफल हो जीवन, दे दो जरा सहारा।
हे प्रभु ऐसा मन कर दो.....


महामंत्र महिमा

ऐसो पंच नमुक्कारो
सव्वपावप्पणासणों।
मंगलाणं च सव्वेसिं
पढ़मं हवई मंगलं।।
यह पांच पदों में नमस्कार,
सब पापों का नाश करने वाला है,
संसार के सब मंगलों में यह
पहला श्रेष्ठ मंगल है।


मंगलभावना

शिवमस्तु सर्वजगतः
परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः।
दोषा प्रयान्तु नाशं,
सर्वत्र सुखी भवतु लोका।।
सकल विश्व का जय मंगल हो,
ऐसी भावना बनी रहे।
अमित परहित करने को मन,
सदैव तत्पर बना रहे।।
सब जीवों के दोष दूर हो
पवित्र कामना उर उल्लसे।
सुख शान्ति सब जीवों को हो,
प्रसन्नता जनमन विलसे
नाथ निरंजन भवभय भजन
तीन भुवन के हे स्वामी।
वीतराग सुखसागर है,
भगवान महावीर गुणधामी।।


लघुकथा: बांझ

रमा देवी ने अपनी बहू सुनैना पर बरसते हुए कहा ‘तूने मेरे बेटे की जिंदगी खराब कर दी कलंकनी’ शादी को सात साल बीत गए लेकिन अब तक मुझे कोई पोता नहीं दे सकी। पता नहीं किस अशुभ घड़ी में पैदा हुई थी। जा निकल इस घर से। ऐसी बांझ औरत की हमें जरूरत नहीं। मैं अपने इकलौते बेटे रविनेश का ब्याह कहीं और कर दूंगी।
सुनैना की सास ने धक्के व गंदी गालियां देकर उसे घर से बाहर निकाल दिया। उसका पति भी अपनी मां का कहा मान अपनी पत्नी को मारता पीटता था।
अपने पति व सास की यातना-प्रताड़ना से दुःखी हो सुनैना अपने गरीब पिता रामदयाल के घर आ गयी। तथा कभी भी ससुराल में लौटकर न जाने की कसम खा ली। सुनैना बड़ी भोली-भाली, सुशील एवं सुसंस्कृत लड़की थी। उसके अभिभावकांे ने उसे अच्छे संस्कार दिए थे। उसने सास व पति के दुःखों से पीड़ित होकर कभी उनका विरोध नहीं किया, चुपचाप अपमान एवं मार सहती रही।
सुनैना का पति रविनेश जो पढ़ा लिखा था अपनी मां के बहकावे में आकर दूसरी शादी के लिए राजी हुआ।
सुनैना के पिता ने भी सुनैना को मनाकर दूसरी शादी के लिए राजी कर लिया। करीबन दो वर्ष के बाद एक शादी के समारोह में सुनैना की पूर्व सास रमादेवी और पूर्व पति रविनेश की सुनैना से अचानक भेंट हो गयी। सुनैना की गोद में एक नन्हा-मुन्ना प्यारा सा बच्चा देख दोनों हैरान रह गए। नजरें मिलीं तो सुनैना ने उस पर कटाक्ष कसते हुए मुस्कुराकर कहा, ‘‘मेरा अपना बच्चा है। बड़ा प्यारा है न।’’
अरे हां, सुना था आपने अपने इकलौते लाडले का ब्याह दूसरी जगह करवा दिया था। अब तो आपको लल्ला मिल गया होगा? वे दोनों सुनैना के सवाल का जवाब दिए बिना ही आत्मग्लानि के साथ गर्दन झुकाकर आगे बढ़ गए क्योंकि दूसरी शादी के बाद भी रमा देवी पोते का मुंह देखने को तरस गयी थी।


- डॉ. पी. आर. बासुदेवन ‘शेष’


लघुकथा: पाने के पहले कुछ देना सीखो

एक सुविख्यात संत थे। उनके विषय में प्रसिद्ध था कि उनके पास जाकर आशीर्वाद लेने से मनोकामना पूरी हो जाती है। एक स्त्री संतान प्राप्ति की इच्छा से संत के पास आई और बोली-‘‘सब कुछ है मेरे पास, केवल पुत्र ही नहीं है। मुझे आशीर्वाद दीजिए ताकि मेरा आंगन भी हरा-भरा हो।’’
संत ने उसे दो मुट्ठी भुने हुए चने दिए और कहा-‘‘बाहर बैठकर ये चने खा, जब बुलाऊँ तब आना।’’
स्त्री आंगन में बैठकर चने खाने लगी। वहाँ कई बच्चे खेल रहे थे। स्त्री को खाता हुआ देखकर ललचायी आंखों से उसकी ओर देखने लगे। स्त्री को यह अच्छा नहीं लगा। उसने एक बच्चे को डांटते हुए कहा-‘‘क्या है रे?’’ ‘‘हमें भी चने दो’’ एक बालक बोल पड़ा। ‘‘भाग यहां से’’ स्त्री ने दुत्कार कर कहा। मगर बालक खड़े रहे। स्त्री ने एक बालक का हाथ पकड़कर मरोड़ दिया तो बालक चीख उठा। चीख सुनकर संत बाहर आए। उन्होंने स्त्री से पूछा-‘‘क्या हुआ?’’ स्त्री चिढ़कर बोली-‘‘होता क्या? चने मांग रहे हैं और तंग कर रहे हैं।’’
संत स्थिति समझ गए और बोले-‘‘माँ, जब तुम मुफ्त के चनों में से चार दाने इन अनाथ बालकों को नहीं दे सकीं तो भगवान तुम्हें हाड़-मांस का बच्चा कैसे देगा? पाने से पहले देना सीखो। जाओ, पहले देने की भावना मन में पैदा करो, फिर कुछ पाने की लालसा करना।’’


सबसे बड़ा आश्चर्य

वनमें धर्मराज युधिष्ठिर के चारों भाई सरोवर के सामने मृतक के समान पड़े थे, प्यास तथा भ्रातृशोक से व्याकुल युधिष्ठिर के सम्मुख एक यक्ष खड़ा था। यक्ष के प्रश्नों का उत्तर दिये बिना जल पीने के प्रयत्न में ही भीम, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव की यह दशा हुई थी। युधिष्ठिर ने यक्ष को उसके प्रश्नों का उत्तर देना स्वीकार कर लिया था। यक्ष प्रश्न करता जा रहा था, युधिष्ठिरजी उसे धैर्यपूर्वक उत्तर दे रहे थे, यक्ष के अन्तिम प्रश्नों में से एक प्रश्न था-संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?


अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।
शेषाः स्थिरत्वमिच्छीन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।।

सत्य-प्रतिदिन प्राणी यमलोक जा रहे हैं। (सब देख रहे हैं कि प्रतिदिन उनके आसपास लोग जा रहे हैं) परन्तु दर्शक बने हुए लोग स्थिर बने रहना चाहते हैं, इससे बड़ा आश्चर्य संसार में और क्या होगा। यह उत्तर था धर्मराज युधिष्ठिर का।


स्वाभिमान व अहं भाव

प्रत्येक व्यक्ति को स्वाभिमान प्रिय है, वह चाहता है कि उसके आत्मसम्मान को ठेस नहीं पहुँचे, ऐसा तभी संभव है जबकि दूसरों के आत्मसम्मान का भी ध्यान रखा जाये। आत्मसम्मान अहं भाव से सर्वथा भिन्न है आत्मसम्मान को ठेस तब पहुँचती है जब कोई अपनी इज्जत से खिलवाड़ करता है, यानि न कहने जैसा आवेश में कह देता है अथवा न करने जैसी कोई बात हो जाती है, तब टकराव की नौबत आ जाती है व एक दूसरे पर हावी होने का प्रयास किया जाता है अथवा एक दूसरे को नीचा दिखाने का, जिसे कहा जाता है आत्मसम्मान की लड़ाई, जो वस्तु स्थिति का सही जायजा लेने पर अथवा भूल का अहसास होने पर पश्चाताप के साथ समाप्त की जा सकती है, परन्तु अहं भाव से व्यक्तिगत स्वार्थ अथवा ईर्ष्या द्वेष की उत्पत्ति होती है जो लम्बे समय तक एक दूसरे के लिये ईर्ष्यावश नुकसान की कामना करते हैं जिसमें अपनी ही आत्मा का अहित है न कि सामने वाले का। अहं भाव अहंकार को जन्म देता है जो विवेक पर पर्दा डालने का काम करता है जिससे कई बार सही निर्णय कर पाना कठिन हो जाता है अतः अहं भाव अथवा अहंकार सर्वथा हानिकारक है जो आत्म उत्थान व व्यवहारिक अभ्युदय में भी बाधक है जहां आत्म सम्मान का सवाल पैदा होता है वहां भी अधिक उलझने के बजाय समस्या को सरलता से समझने का प्रयास कर विवाद को समाप्त कर देना ही उपयुक्त है।


ईर्ष्या व द्वेष की ज्वाला हानिकारक

वैसे सभी जीव किसी न किसी रूप में ईर्ष्या व द्वेष के दूषण से ग्रसित हैं, कहीं कम व कहीं अधिक। बड़ी मछली छोटी मछली को अक्सर खा जाती है, परन्तु यह प्रक्रिया ईर्ष्या द्वेष का परिणाम नहीं है, क्योंकि बड़ी मछली के सामने कौन सी छोटी मछली है इस से दोनों अनभिज्ञ है। कुत्तों की जाति में ईर्ष्या-द्वेष की मात्रा अधिक होती है, ज्योंही एक कुत्ता किसी अपरिचित अथवा बाहर से आये कुत्ते को देखेगा तो भौंकने लग जायेगा व शत्रुतापूर्ण व्यवहार करेगा परन्तु उसमें भी यह गुण है कि अपने आस पास रहने वाले व परिचित कुत्तों के साथ बैर अथवा द्वेष नहीं रखेगा। जबकि यह अजीब सा लगता है कि जब मानव जाति में इन्सान प्रायः ईर्ष्या-द्वेष अपने वालों से अथवा परिचितों से ही अधिक करता है। यदि कोई अपने से आगे बढ़ जाता है अथवा किसी की प्रगति निरन्तर हो जाती है तब लगता है कि ऐसा क्यों हो रहा है। यह सोच कर एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या-द्वेष की भावना पनपने लगती है जो नहीं होनी चाहिये, यदि ऊपर वाली लाईन बड़ी है तो छोटी लाईन को बड़ा करने का प्रयास करना चाहिये न कि बड़ी को काट कर छोटी के बराबर लाने की भावना रखना। मेंढक जाति में प्रायः एक दूसरे की टांग खींचने का प्रवृत्ति अधिक होती है जिसका मानव जाति को अनुकरण नहीं करना चाहिये। आज किसी दूसरे की उन्नति व प्रगति हो रही है, कल अपनी भी हो सकती है, अतः जैसा आपका सोचना अथवा व्यवहार होगा उसी की पुनरावृत्ति सामने वालों में आपके प्रति होगी, अर्थात् हर क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्य होती है अतः ईर्ष्या-द्वेष के धुएं को पनपने के पूर्व ही शान्त कर देना चाहिये। ईर्ष्या-द्वेष से स्वयं का ही अहित है, किसी दूसरे का कुछ बिगड़ने वाला नहीं।


संस्कार क्या है?

संस्कार का अर्थ है मनुष्य के अन्दर छुपी एवं दबी पड़ी प्राचीन संस्कृति को उभार कर सामाजिक जीवन के अनुसार ढालने की एक अनवरत प्रक्रिया। एक दिन में खराब हो जाने वाले दूध को दही बनाकर, घी में परिवर्तित करना, दूध का संस्कार कर उसे पौष्टिक बनाना एवं वर्षों खराब न होने वाला घी बनाना ही संस्कारिता है। भारतीय जीवन पद्वति में संस्कार प्रदान करने की सुन्दर व्यवस्था है। यह प्रक्रिया प्रारम्भ में घर, फिर विद्यालय, मैदान एवं फिर संस्था आदि से अनवरत चलती रहती है।

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